गुरुवार, मार्च 10, 2005

बचपन के मीत :: पर्चे की अदला-बदली

Akshargram Anugunj
बहुत से मित्र थे बचपन के. कुछ एक का साथ छूट गया. लेकिन अभी भी कुछ एक से साथ कायम है और बाकियों की ख़बरें इधर उधर से मिलती रहती है.सब दोस्तों के बारे में तो शायद बाद में कभी लिखूंगा लेकिन अपने दोस्त महेश के बारे में इस लेख में लिख रहा हूं. हम लोगों ने न जाने कितना वक्त एक दूसरे के साथ गुजारा है. महेश , मैं और कभी कभार कुछ दूसरे दोस्त शाम को मटरगश्ती पर निकल जाते थे. कभी महफ़िल पार्क में सजती थी, कभी नदी के किनारे, कभी पहाड़ पर तो कभी स्टेशन रोड के बाज़ार में. चाय , समोसे, मूँगफली, लुड़ईयों और कभी हरी चटनी के साथ सिंघाड़ों का दौर चलता था. दुनिया भर की लफ्फाजी,हँसी,मजाक और इधर उधर की बातों में तुरंत सारी शाम गुजर जाती थी. जब वापस घर जाने का समय आता तो पान खाकर सब लोग वापस जाते थे.मैं ज्यादा पान नहीं खाता था तो पान के लिये कभी कभी मना कर देता था लेकिन मजाल है कि यूपी में यार दोस्त मिलें और पान न हो. कई बार तो लोग बाग कहते थे अरे भईया पान खाये बग़ैर कैसे चले जाओगे.

एक वाकया बताता हूँ. यूपी बोर्ड के हाईस्कूल के इम्तहान चल रहे थे. महेश की तैयारी ठीक नहीं थी और गणित के पर्चे में उसे मेरी मदद की जरुरत थी और प्लान ये बना की मैं अपने पर्चे में कुछ प्रश्नों के उत्तर लिख दूंगा और हम लोग परीक्षा शुरू होने के एक घंटे के बाद बाथरूम मेँ मिलेंगे और पर्चा बदल लेंगे. तयशुदा वक्त पर हम लोग बाथरूम में मिले और हम लोगों ने पर्चे की अदलाबदली की. लेकिन महेश कुछ और प्रश्नों के बारे में भी पूछना चाहता था. मैंने जल्दीबाजी में उसे एकाध सवालों के जवाब समझाये लेकिन महेश को कुछ ज्यादा ही मदद की जरूरत थी और उसकी जिद पर हम लोग गलियारे में एक दीवार से सटकर खड़े हो गये और मैं उसे बताने लगा. तभी मैंने देखा कि एक अध्यापक गलियारे से गुजरा और उसने हम लोगों को देख लिया. मेरी तो सिट्टी पिट्टी ग़ुम हो गयी. लेकिन वो अध्यापक बहुत ही शरीफ़ निकला और हम लोग को बिना कुछ कहे निकल गया. और इस तरह से मेरी जान में जान आई और मैं अपने कमरे में भागा और महेश अपने कमरे में.

मैंने भगवान का नाम लेते हुये चुपचाप अपना पर्चा खतम किया और बाहर निकला. बाहर निकलने के बाद महेश ने मुझे बताया कि अपने कमरे में पहुँचने के बाद उसने बदले हुये पर्चे की मदद से लिखना शुरू किया लेकिन थोड़ी देर के बाद पता नहीं कैसे उसके कमरे के निरीक्षक को ये शक हो गया कि उसने पर्चा बदला है क्यूंकि उसने पर्चे में कुछ लिखा हुआ देख लिया था. उसने महेश को बहुत सताया और बार बार उस पर दबाव डाला कि बताओ किससे पर्चा बदला है. उसने एड़ी चोटी का जोर लगाया ये पता लगाने के लिये कि पर्चा किस से बदला गया है. यहीं नहीं उसने सारे कमरे में दूसरे लड़कों से भी पूछताछ की लेकिन उसे कुछ पता नहीं चला. उसे ये लग रहा था की पर्चा इसी कमरे में बदला गया है और उसे ये जरा भी अहसास नहीं हुआ कि पर्चा बाहर से बदला गया है. अगर निरीक्षक को इस बात की जरा भी भनक मिल जाती कि पर्चा बाहर से बदला गया तो निश्चित रूप से हम दोनों पकड़े जाते थे और हम लोग जरुर रस्टीकेट कर दिये जाते थे. महेश की बातें सुनकर मेरे रोंगटे खड़े हो गये और मुझे ऐसे लगा जैसे मौत के मुंह से बच के निकल के आया हूँ.

उस दिन अगर मैं पकड़ा जाता तो जरूर दसवी में फेल हो जाता और बाद में शायद मेरे कैरियर का कबाड़ा भी हो सकता था. इस घटना के बाद भी हम लोगों की दोस्ती में फ़र्क नही आया. अब आजकल मैं अपनी नौकरी में व्यस्त हूँ और मेरा दोस्त अपनी दुकानदारी में व्यस्त रहता है. लेकिन अब भी जब अपने कस्बे में छुट्टियों में वापस जाता हूं तो उसके साथ काफ़ी वक्त गुजरता है और बीते हुये दिनों की यादें ताजा होती हैं.

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