सोमवार, मई 30, 2005

बंटी और बबली (Bunty aur Babli)


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Originally uploaded by Raman B.


भाई मजा आ गया ये फिल्म देखकर .. बहुत ही बढ़िया कामेडी .. चुस्त, तेज‍तरार्र बहुत ही बढ़िया डायलाग्स .. बहुत बढ़िया गाने .. बहुत ही अथेंटिक लोकेशन्स .. बहुत बढ़िया अभिनय ... कुल मिला के सब कुछ बहुतै बढ़िया... एकदम टोटल टाईमपास ..

फिल्म के काफी हिस्से की शूटिंग कानपुर लखनऊ और यूपी के दूसरे शहरों में हुई है .. जाहिर है यूपी वालों को और भी मजा आयेगा.. फिल्म की प्रस्तुति में नयापन लगता है.. डायलाग्स यूपी में आमतौर पर बोली जाने वाली भाषा की तरह ही लगते हैं .. जाहिर है कि यूपी के छोटे कस्बे में पले बढ़े होने की वजह से मुझे फिल्म के इस हिस्से में बहुत ही मजा आया ..

फिल्म की कहानी मि. नटवरलाल, Bonnie And Clyde और Catch Me If You Can जैसी फिल्मों की तरह है. फिल्म बहुत ही फास्ट पेस्ड है और चुस्त है.. पटकथा कहीं पर भी बोझिल नहीं होती.

जरूर ये फिल्म देखें और मजा पाईये. आप चाहें तो रीडिफ पर पूरी समीक्षा यहां देख सकते हैं.

मंगलवार, मई 24, 2005

अप्रैजल टाइम (Appraisal time)

कहा जाता है कि चाहे कितनी भी ज्यादा तनख्वाह हो लेकिन हमेशा कम ही लगती है. हर साल की तरह आजकल भी इस साल का अप्रैज़ल चल रहा है. हमेशा की तरह इस साल भी लोग इन्तज़ार कर रहे हैं कि उनको जबर्दस्त रेटिंग मिलेगी और उसी हिसाब से तनख्वाह भी अच्छी खासी बढ़ाई जायेगी. खासतौर से भारत में लोग काफी ज्यादा aggresive हैं इस बारे में, क्यूँकि इस वक्त भारत में बाजार खासा गरम है और लोगों को मनमुआफिक तनख्वाहें मिल रही है. कईयों ने तो इरादा पक्का कर लिया है कि अगर इस बार कम्पनी ने अच्छी बढ़ोत्तरी नहीं दी तो इस कम्पनी से इस्तीफा दे देंगे. उसी हिसाब से लोग जोर शोर से अपना resume बनाने और दूसरी कंपनियों में इंटरव्यू देने में लगे हुये हैं.

अमेरिका में होने की वजह से कुदरतन पिछले दो सालों से कम्पनी ने आनसाईट consultants को ज्यादा महत्व नहीं दिया है. पिछलों दो सालो से अमेरिका में वेतन औसतन 3% तक बढ़ाया गया है जबकि उसके मुकाबले में भारत में १२% से १५% तक की बढ़ोत्तरी हुई है.

जहां एक तरफ लोग अप्रैजल की मारामारी में लगे हुये है, वहीं इधर कुछ सालों से मेरा अप्रैजल से जुड़ाव काफी कम हो गया है. पिछले दो सालों में तो मेरा अप्रैजल तो जैसे हुआ ही नहीं. इस साल भी मेरी बजाय मेरा बास ही हाथ धो के अप्रैजल करने के पीछे पड़ गया था. जैसे तैसे अप्रैजल फार्म भर के उसको पकड़ा दिया. जाहिर है कि मैं वेतन में बढ़ोत्तरी की उम्मीद भी नहीं कर रहा हूं. मैं यूं ही सोच रहा था कि मेरे अप्रैजल से इस तरह से detach होने की वजह कया है? एक तो शायद ये कि मै वैसे ही अपना काम जैसे तैसे करके निपटा रहा हूं और बीच बीच में शार्टकट मारता रहता हूं, हलांकि अभी तक कंपनी मुझे अच्छा कंसल्टैन्ट ही मानती है क्यूंकि अभी तक clients से मेरी फीडबैक अच्छी ही आई है. दूसरा ये कि मेरी प्राथमिकता है शान्तिपूर्ण और stress-free जाब, फिर उसका मतलब भले थोड़े कम पैसे मिलें.

यहां पर एक बात साफ कर देना चाहता हूं कि ए॓सा नहीं हैं कि पैसे से मेरा लगाव या मोह निकल गया हो या फिर ऐसा भी नहीं कि आध्यात्मिक अंदाज मे मैं पैसे को मोह माया का जंजाल या मिथ्या समझूं. हर आम आदमी की तरह मेरी भी यही ख्वाहिश है कि मेरे पास ढेरों पैसे हों और मुझे कभी भी पैसों कि जरूरत होने पर किसी का मोहताज न होना पड़े.

कुल मिला के अगर गलती से मुझे अप्रैजल के बाद ज्यादा वेतन मिलने लगे तो ये नाचीज जरूर खुश हो जायेगा. लेकिन अगर वेतन नहीं बढ़ा तो भी चलेगा.

शनिवार, अप्रैल 16, 2005

शोभा डे : 'सितारों की रातें'

अभी हाल ही में शोभा डे की किताब 'सितारों की रातें' पड़ी है. ये शोभा की अंग्रेज़ी क़िताब Starry Nights का हिन्दी अनुवाद है. शोभा जी के लिखने के स्टाईल को कुछ लोग साफ्ट पोर्न कहते हैं तो कुछ लोग इसे पल्प फिक्शन भी कहते है. बहरहाल मुझे न तो ये पता है कि पल्प फिक्शन क्या होता है और नही ये पता है कि इस किताब को साफ्ट पोर्न या पल्प फिक्शन की श्रेणी में डालना चाहिये. मैं तो सिर्फ इस किताब के कुछ खास पहलूओं के बारे में अपना नज़रिया पेश कर रहा हूं.

१. बेहतरीन हिन्दी अनुवाद

इस किताब के हिन्दी अनुवादक का नाम मोज़ेज़ माईकल लिखा है. कभी इनका नाम नहीं सुना है लेकिन इतना जरूर कहना पड़ेगा कि बहुत ही बेहतरीन अनुवाद किया है. एकदम चुस्त और फर्राटेदार आम बोलचाल वाली हिन्दी और उर्दू का प्रयोग किया है इन्होने. कहीं पे भी ऐसा नहीं लगता कि अनुवाद किया गया है और भाषा बिल्कुल भी बोझिल नहीं लगती. अनुवाद का एक नमूना नीचे देखिये.

" उसकी बगल में बैठे आदमी का कसमसाना पहले ही शुरू हो गया था. किशनभाई ने धीमे से उसे गरियाया. सिंथेटिक कपड़े का नीला कुरता‍ पाजामा पहने यह दो कौड़ी का भंगी आज रात गोपालजी बना बैठा है. ,गोपालजी माई फूट,, उसने फनफनाते हुये धीमे से कहा. वह कोई गोपालजी वोपालजी नहीं था. वह तो मुंबई की गंदी नालियों का भंगी था, भंगी. और आज वही कुतिया का पिल्ला प्रोड्यूसर बना बैठा है. बड़े नाम, बड़े दामवाला प्रोड्यूसर. हरामजादा ! अभी सात साल पहले यही आदमी किशनभाई की प्रोडक्शन कंपनी में यूनिट की जीहुजूरी किया करता था. "

२. चुस्त , तेजतर्रार , पेजटर्नर (पन्ना पल्टो) स्टाईल

वैसे किताब में कहानी तो कुछ खास नहीं है. खासतौर से ये दिखाया गया है कि मुख्य नायिका शुरुआत में सफलता प्राप्त करने के लिये कैसे सबके साथ हमबिस्तर होती रहती है और इस नर्क में डालने वाला कोई पराया नहीं बल्कि उसकी अपनी मां है. साथ में ये भी दिखाया कि किस तरह से फिल्मी दुनिया पूरी तरह से मर्दों के काबू में हैं. बाद में फिल्मी दुनिया के अंदरूनी रंग ढंग और लटके झटके दिखाये गये हैं. वैसे अभी हाल ही में मीडिया में कास्टिंग काऊच को लेकर काफ़ी हल्ला भी हुआ था.

लेकिन कहानी या प्लाट न होने के बावजूद भी किताब एकदम चुस्त, तेजतर्रार पेजटर्नर अंदाज में लिखी गई है. गालीगलौज और गन्दी भाषा का भी खुलकर किया गया है. किताब की ये विशेषता है कि एकबार आप किताब पढ़ना शुरू करेंगे तो फर्र फर्र पढ़ते चले जायेंगे और किताब छोड़ नहीं पायेंगे.

३. साफ्ट पोर्न , सेक्स की अधिकता

किताब में सेक्स के बारे बहुत ही खुला खुला और बार बार लिखा गया है. हर तरीके के सेक्स एनकाऊंटर्स का बहुत ही खुला खुला और पूरा पूरा वर्णन है. कुछ भी लाग लपेट के बजाय सेक्स को एक खेल , एक जश्न या महाआनंद की तरह भी पेश किया गया है. कुछ लोगों को सेक्स की अधिकता एक बीमार मानसिकता भी लग सकती है. कुछ बानगी नीचे देखिये.

"मालिनी ने चीखते हुए कहा, "अपने इस साले फलसफे और लेक्चरबाजी को अपने चूतड़ों में घुसेड़ लो. मुझे तो मेरा पति वापस दो !
..........
..........
मालिनी ने चीखकर कहा, "सेक्स ! बस यही है तुम्हारे पास ‍, सेक्स ! तुम्हारी जैसी औरतें इसी का इस्तेमाल करती हैं. घटिया कुत्तियों...अपनी टांगें उठाती हो और किसी भी आदमी को अंदर ले लेती हो. सेक्स, सेक्स, सेक्स, गंदा, घिनौना सेक्स! विकृत सेक्सवालियों ! तुम जरूर विकृत सेकस का इस्तेमाल करती होगी. कया करती हो तुम उसके साथ‍, हैं? उसका भंटा चूसती हो? या अपनी छातियों से उसका दम घोंटती हो ?"

"यह कहकर आशा रानी उसके ऊपर चढ़ गई थी, और दिव्य गंध वाला वह तेल डलकर धीरे धीरे उसकी मालिश करने लगी थी. वह किसी लोचदार नर्तकी की तरह हरकत कर रही थी. उसके बाल अक्षय के पूरे सीने पर फैल रहे थे, उसके उरोज अक्षय के मुँह पर आ जा रहे थे, उनकी घुंडियाँ रह रहकर अक्षय के होंठों से छू रही थीं. "सेक्सी औरत, यह सब कहाँ से सीखा तुमने ?" "

४. सारांश

कुलमिला कर ये कोई साहित्यिक किस्म की किताब नहीं है. और कोई ऐसी किताब भी नहीं जिसे पढ़ना एकदम जरुरी कहा जा सकता है. हां लेकिन अगर आप बहुत दिनों से भारी भरकम साहित्यिक किस्म की किताबें पढ़ पढ़ के ऊब चुके हैं तो कभी आप बदलाव के लिये हल्की फ़ुल्की या सतही किस्म की किताब पढ़ना चाहें तो इस किताब को जरूर पढ़ सकते है. एकदम चटपटी गोली की तरह लगेगी यह किताब. बिल्कुल उसी तरह जैसे लगातार शाष्त्रीय संगीत सुनते रहने के बाद बीच मे बदलाव के लियें फिल्मी गाने सुने जाय तो अच्छा लगता है

बाद में इंटरनेट पर उधर उधर देखते हुये मुझे ये भी पता चला है कि यह किताब (अंग्रेज़ी वर्ज़न) बंबई विश्वविद्यालय और कुछ दूसरे विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में भी शामिल है.

गुरुवार, मार्च 10, 2005

बचपन के मीत :: पर्चे की अदला-बदली

Akshargram Anugunj
बहुत से मित्र थे बचपन के. कुछ एक का साथ छूट गया. लेकिन अभी भी कुछ एक से साथ कायम है और बाकियों की ख़बरें इधर उधर से मिलती रहती है.सब दोस्तों के बारे में तो शायद बाद में कभी लिखूंगा लेकिन अपने दोस्त महेश के बारे में इस लेख में लिख रहा हूं. हम लोगों ने न जाने कितना वक्त एक दूसरे के साथ गुजारा है. महेश , मैं और कभी कभार कुछ दूसरे दोस्त शाम को मटरगश्ती पर निकल जाते थे. कभी महफ़िल पार्क में सजती थी, कभी नदी के किनारे, कभी पहाड़ पर तो कभी स्टेशन रोड के बाज़ार में. चाय , समोसे, मूँगफली, लुड़ईयों और कभी हरी चटनी के साथ सिंघाड़ों का दौर चलता था. दुनिया भर की लफ्फाजी,हँसी,मजाक और इधर उधर की बातों में तुरंत सारी शाम गुजर जाती थी. जब वापस घर जाने का समय आता तो पान खाकर सब लोग वापस जाते थे.मैं ज्यादा पान नहीं खाता था तो पान के लिये कभी कभी मना कर देता था लेकिन मजाल है कि यूपी में यार दोस्त मिलें और पान न हो. कई बार तो लोग बाग कहते थे अरे भईया पान खाये बग़ैर कैसे चले जाओगे.

एक वाकया बताता हूँ. यूपी बोर्ड के हाईस्कूल के इम्तहान चल रहे थे. महेश की तैयारी ठीक नहीं थी और गणित के पर्चे में उसे मेरी मदद की जरुरत थी और प्लान ये बना की मैं अपने पर्चे में कुछ प्रश्नों के उत्तर लिख दूंगा और हम लोग परीक्षा शुरू होने के एक घंटे के बाद बाथरूम मेँ मिलेंगे और पर्चा बदल लेंगे. तयशुदा वक्त पर हम लोग बाथरूम में मिले और हम लोगों ने पर्चे की अदलाबदली की. लेकिन महेश कुछ और प्रश्नों के बारे में भी पूछना चाहता था. मैंने जल्दीबाजी में उसे एकाध सवालों के जवाब समझाये लेकिन महेश को कुछ ज्यादा ही मदद की जरूरत थी और उसकी जिद पर हम लोग गलियारे में एक दीवार से सटकर खड़े हो गये और मैं उसे बताने लगा. तभी मैंने देखा कि एक अध्यापक गलियारे से गुजरा और उसने हम लोगों को देख लिया. मेरी तो सिट्टी पिट्टी ग़ुम हो गयी. लेकिन वो अध्यापक बहुत ही शरीफ़ निकला और हम लोग को बिना कुछ कहे निकल गया. और इस तरह से मेरी जान में जान आई और मैं अपने कमरे में भागा और महेश अपने कमरे में.

मैंने भगवान का नाम लेते हुये चुपचाप अपना पर्चा खतम किया और बाहर निकला. बाहर निकलने के बाद महेश ने मुझे बताया कि अपने कमरे में पहुँचने के बाद उसने बदले हुये पर्चे की मदद से लिखना शुरू किया लेकिन थोड़ी देर के बाद पता नहीं कैसे उसके कमरे के निरीक्षक को ये शक हो गया कि उसने पर्चा बदला है क्यूंकि उसने पर्चे में कुछ लिखा हुआ देख लिया था. उसने महेश को बहुत सताया और बार बार उस पर दबाव डाला कि बताओ किससे पर्चा बदला है. उसने एड़ी चोटी का जोर लगाया ये पता लगाने के लिये कि पर्चा किस से बदला गया है. यहीं नहीं उसने सारे कमरे में दूसरे लड़कों से भी पूछताछ की लेकिन उसे कुछ पता नहीं चला. उसे ये लग रहा था की पर्चा इसी कमरे में बदला गया है और उसे ये जरा भी अहसास नहीं हुआ कि पर्चा बाहर से बदला गया है. अगर निरीक्षक को इस बात की जरा भी भनक मिल जाती कि पर्चा बाहर से बदला गया तो निश्चित रूप से हम दोनों पकड़े जाते थे और हम लोग जरुर रस्टीकेट कर दिये जाते थे. महेश की बातें सुनकर मेरे रोंगटे खड़े हो गये और मुझे ऐसे लगा जैसे मौत के मुंह से बच के निकल के आया हूँ.

उस दिन अगर मैं पकड़ा जाता तो जरूर दसवी में फेल हो जाता और बाद में शायद मेरे कैरियर का कबाड़ा भी हो सकता था. इस घटना के बाद भी हम लोगों की दोस्ती में फ़र्क नही आया. अब आजकल मैं अपनी नौकरी में व्यस्त हूँ और मेरा दोस्त अपनी दुकानदारी में व्यस्त रहता है. लेकिन अब भी जब अपने कस्बे में छुट्टियों में वापस जाता हूं तो उसके साथ काफ़ी वक्त गुजरता है और बीते हुये दिनों की यादें ताजा होती हैं.

गुरुवार, फ़रवरी 24, 2005

अनुगूँज ६ - शरीर और आत्मा का मिलन

Akshargram Anugunj
भूत-प्रेत, जादूटोना, ज्योतिष और तरह तरह की चमत्कारिक चीजों के बारे मे जानने और सुनने की मुझे हमेशा उत्सुकता रही है. इन विषयों पर अच्छी किताबें पढ़ना और लोगों से सुनना मुझे हमेशा अच्छा लगता है. जैसे इस बार की अनुगूँज मे जीतू भाई का सच्चा किस्सा पढ़ के बहुत ही आश्चर्य हुआ.

वैसे मेरा अपना कोई भी अनुभव नहीं है, जिसे चमत्कार की श्रेणी में डाला जा सके. लेकिन दूसरों से सुनी सुनाई बातों के बारे में जरूर लिख सकता हूं. आपने ओशो रजनीश का नाम तो सुना ही होगा जोकि एक तरफ़ काफ़ी पहुँचे हुये दार्शनिक माने गये हैं तो दूसरी तरफ़ काफ़ी विवादों में घिरे और बदनाम रहे हैं. उन्हीं की मुँहज़बानी उनके कैसेट में सुना ये किस्सा याद आ रहा है.

एक बार वो पेड़ के ऊपर काफी देर से ध्यानमग्न थे और जब बहुत ज्यादा गहरे ध्यान की स्थति में थे तो अचानक उनका शरीर पेड़ से गिर गया. उन्होने लिखा है कि उस छण में उनका शरीर उनकी आत्मा से अलग हो गया था. अब उन्हें आश्चर्य हो रहा था कि इन दोनों का आपस में मिलन कैसे होगा तो उन्होने लिखा है कि कुछ देर में वहां से एक ग्रामीण औरत निकली और उसने उन्हें मरा हुआ समझकर छुआ, इससे उनके शरीर और आत्मा का पुनर्मिलन हो गया. उनकी बातों के अनुसार पुरूष शरीर में मादा स्पर्श से ऐसा संभव है और इसके विपरीत मादा शरीर में पुरूष स्पर्श से.

उन्होंने आगे ये भी बताया है कि बाद में फिर कुछ और दफ़ा भी उन्होने यही घटना दोहराई. ऐसा कुछेक बार करने के बाद उन्होंने ये भी महसूस किया कि उनके शरीर का तालमेल बिगड़ गया है. बहरहाल इसमें कितना सच है, ये कहना तो बहुत मुश्किल है लेकिन अगर ये सचमुच सच है तो ये वाकई बहुत बड़ा चमत्कार है.

सोमवार, फ़रवरी 21, 2005

शापिंग

एक ज़माना था जब मेरे लिये शापिंग का मतलब होता था सौदा सुल्फ़ ख़रीदना. किशोरावस्था के दिनों में माताजी मुझे सब सौदा बोलतीं थीं और मैं उसकी सूची बना लेता था. जब मैं सौदा सुल्फ़ लेने जाता था तो रास्ते में मिलने वाले परिचितों से जय राम जी की करता हुआ और बाज़ार से गुजरने वाली लड़कियों पर नज़र डालता हुये अपनी धुन में मस्त निकल जाता था. फिर दुकानदार के पास पहुँच कर उसे सूची पकड़ा देता था. मै बैठकर सेठ से राजनीतिक और दूसरी इधर उधर की बातें बतियाता रहता था, थोड़ी ही देर मे नौकर लोग सामान बांध देते थे और मैं दुकानदार को पैसे चुकाकर वापस घर का रास्ता नापता था. लेकिन आजकल आधुनिक समाज में शापिंग को कई नये आयाम दिये गये हैं और शापिंग को एक नये शिखर पर पहुंचाया गया है.

अमेरिका मेँ तो ख़ास तौर से शापिंग को काफ़ी महत्व दिया जाता है. यहां की पूरी अर्थव्यवस्था ही उपभोक्तावाद पर कायम है. यहां पर शापिंग पर कई तरीके के अनुसंधान होते है. कुछ लोग शापिंग और उपभोक्ताओं की जरूरतों के गुरू माने जाते हैं तो कुछ लोगों ने इन विषयों मे डाक्टरेट तक किया हुआ होता है. कई विश्वविद्यालय शायद इन विषयों पर डिग्री भी प्रदान करते हैं. कई लोगों के लिये और खास तौर से महिलाओं के लिये शापिंग एक बहुत ही आनन्ददायी कृत्य होता है लेकिन कुछ लोगों के लिये शापिंग मुसीबत का पर्याय बन के आती है.

वैसे तो कई तरह के शापर्स होते हैं, लेकिन कुछ ख़ास की बानगी नीचे देखिये.

१. पुराने धाकड़, महारथी या मंजे हुये खिलाड़ी

इस श्रेणी के जन्तु शापिंग के बहुत मंजे हुये खिलाड़ी होते हैं. शापिंग आयडियाज़ के लिये इनके पास काफ़ी मजबूत नेटवर्क होते हैं. शापिंग इन के लिये किसी साधना से कम नहीं होती है. ये शापिंग की विद्या मे पूर्णतया पारंगत होते हैं. अगर इन्हें शापिंग के जंगलों के शेर कहे तो कोई मुग़ालता नहीं होगा. अक्सर नौसिखये शापर्स इनकी सेवायें प्राप्त करके अपने आपको धन्य समझते हैं.

कई देसी भाई भी इसी श्रेणी में आते हैं और ये पाया गया है कि कोई भी सामान लेने से पहले वे अपने सारे नेटवर्क में चेक कर लेते हैं और उसी के बाद ही वो कोई सामान ख़रीदते हैं. कईयों के नेटवर्क तो इतने मजबूत और विशाल होते हैं कि कोई भी नई और खास किस्म की चीज़ या कोई खास प्रमोशन या डील इनकी निगाहों से नही बच सकती.

२. मध्यमार्गी

ये लोग हमेशा बीच का रास्ता अख़्तयार करना पसंद करते हैं. न शापिंग इनके लिये मुसीबत होती है और न ही कोई खास आनन्दप्रदायक कृत्य. शापिंग को ये लोग एक अनिवार्य जरुरत या धर्म की तरह निभाते है. इनका सिद्धांत एकदम सरल होता है. बस जब जितना सामान जरूरी है तब उतना सामान खरीदा और अपने काम से मतलब रखा. ये लोग शापिंग पर ज्यादा माथापच्ची नहीं करते है और न हीं शापिंग पर बहुत ज्यादा समय नष्ट करते हैं.

३ कंजूस मक्खीचूस या पेनीपिंचर या कूपन कटर

इस श्रेणी के लोगों में हमेशा समय की अधिकता होती है और पैसों की कमी होती है. कुछ एक डालर बचाने के लिये ये लोग कितनी ही दुकानों के चक्कर लगा सकते हैं और न जाने कितना वक्त बरबाद कर सकते हैं. कुछ कुछ अमेरीकन दुकानदार इन्हें शैतान ग्राहक (Demon Customers) भी कहते हैं. इनका बस चले तो हर दुकानदार को चूस चूस कर उस का दिवाला निकाल दें. कहा जाता है कि लगभग ८०% छोटे कारोबार अपने पहले ही साल मेँ ध्वस्त हो जाते हैं. इसमें काफ़ी सारा योगदान शैतान ग्राहकों का भी रहता है. ऐसे शापर्स की वजह से उपभोक्ता खर्च इंडेक्स के कम हो जाने की होने की आशंका बनी रहती है और पूरी की पूरी मैक्रो अर्थव्यवस्था पर भी खतरों के बादल मंडराने के आसार नज़र आने लगते हैं.

अपने हमवतन कुछ देसी भाई भी इसी श्रेणी में आते हैं. वो शापिंग के मामलों में महा-जुगाड़ू होते हैं. कई बार सामान मन मुआफ़िक न हुआ तो ऐसे देसी झूठमूठ का टंटा फैलाकर अपना कारज सिद्ध कर लेते हैं. कुछ लोग तो सामान लेते हैं और थोड़े दिन उसका मज़ा लेने के बाद झूठमूठ का बहाना बना कर या फिर जानबूझकर किसी सामान को तोड़फोड़ कर उसे वापस कर देते है.

अमेरिका में ऐसे कई देसियों का पूरा का पूरा शनिवार शापिंग मेँ गुजर जाता है. आप पूछेंगे कि पूरा का पूरा दिन शापिंग में कैसे गुजर सकता है, तो इसकी वजह ये है की तरह तरह की शापिंग जो कि पैसों की बचत के लिये बहुत जरूरी है. मिसाल के तौर पर नीचे देखिये.

१. अमेरीकन ग्रासरी शापिंग ‍ ( सेफ़वे वग़ैरह )
२. भारतीय ग्रासरी शापिंग ‍ ( इंडिया बाज़ार या देसी दुकान )
३. कास्को शापिंग ‍ ( थोक में सस्ता सामान )
४. जनरल शापिंग ( वालमार्ट वग़ैरह )
५. कपड़ों आदि की शापिंग ( जे सी पेनी , मेसीज , सीअर्स वगैरह )
६. खिड़की शापिंग ‍ ( सिर्फ़ सामान देखने वाली शापिंग )

एक दूसरे सज्जन हैं, जिन्होने कार तो नयी नवेली SUV ले ली, लेकिन पेट्रोल के पैसे बचाने के चक्कर में कास्को जाना नहीं भूलते हैं. दूसरे एक दंपति जोकि वैसे अपने स्टेटस के बारे में काफ़ी सतर्क रहते है लेकिन चन्द डालर बचाने के लिये खासतौर से कास्को जाने में नहीं हिचकिचाते. मेरी कंपनी के भारत से जो कंसलटैन्ट आते हैं वो भी चाकलेट पर एक एक डालर बचाने के लिये खासतौर से कास्को जाने का इंतजाम करते हैं.

ऐसे लोगों के बारे में एक लतीफ़ा भी मशहूर है.एक साहब मोल-तोल में काफ़ी उस्ताद थे. एक दिन बाज़ार में वो किसी दुकानदार से मोलतोल कर रहे थे. ५० रुपये की शर्ट पर एक घंटा मोलतोल करने के बाद दुकानदार एक रुपये में बेचने के लिये तैयार हो गया. लेकिन भाईसाहब अड़े रहे और फिर भी मोलतोल करते रहे. तंग आकर दुकानदार ने कहा कि ठीक है मेरे बाप आप मुफ़्त में ले जाईये. भाईसहब ने थोड़ी देर सोचा फिर कहा, मुफ़्त में दो शर्ट दोगे क्या?

४. पुराने क़ाहिल

इन लोगों के लिये शापिंग एक बहुत भारी मुसीबत का नाम है. बीवी के मुँह से शापिंग का नाम सुनते ही इनके पसीने छूटने लगते हैं. मेरी श्रीमतीजी जब भी मुझे बाज़ार ले जाती हैं तो मुझे लगता है कि जितना जल्दी से जल्दी हो सके शापिंग ख़तम की जाये, इसीलिये हमेशा श्रीमतीजी मुझसे तंग आ जाती हैं.

वैसे हर शापिंग-खिलाफ़ पति का अपनी शापिंग‍-पसन्द पत्नि से कुछ न कुछ अरेंजमेन्ट होता है. अब अपने काली भाई को ही ले लीजिये, इनकी श्रीमतीजी भी काफ़ी हमदर्द हैं और जब भी काली भाई थके हुये होते हैं तो इनकी पत्नि काफ़ी मुरव्वत करके शापिंग बैग खुद ही उठा लेती हैं. मेरी बीवी भी जब मैं थका हुआ या शापिंग मूड में नहीं होता हूँ तो सिर्फ पिकअप , ड्राप और बेबीसिटिंग के लिये मुझे याद करती हैं और मुझ पर भारी अहसान करते हुये शापिंग के कष्ट से मुझे बचाती हैं.

५. अनियंत्रित शापर्स (compulsive shoppers)

ये शापर्स अपने आप पर बिल्कुल भी नियंत्रण नहीं कर सकते. कोई भी नई चीज़ जिस पर इनकी नज़र पड़ जाती है ये लोग उसे खरीदना चाहते हैं भले ही उस चीज़ की उन्हें बिलकुल भी जरूरत न हो या फिर वो उनकी हैसियत के बाहर हो. अगर इन्हें इनकी पसंद की चीज़ लेने से रोकने की कोशिश की जाये तो ये खुदकुशी करने पर उतारू हो जाते हैं.

दुकानदार और क्रेडिट कार्ड कंपनियां इन्हें काफ़ी पसन्द करते हैं और ऐसे लोगों को आदर्श ग्राहक मानते हैं. सामान तो ये लोग बहुत सारा ले आते हैं लेकिन कई बार सामान इस्तेमाल करना तो दूर, ये सामान खोलते तक नहीं हैं. ऐसे लोगों के घर और गैराज़ में तिल रखने की भी जगह नहीं होती है. कई बार इनके गैराज़ सामानों के बन्द डब्बों से गंधाते रहते हैं.

तो ये थे शापिंग के बारे में इस नाचीज़ के तुच्छ विचार. लेकिन आप किस सोच में डूब गये हैं? ज़्यादा सोचिये मत, अपनी श्रीमतीजी से इस वीकेन्ड का शापिंग प्लान पूछिये और अपना बटुआ हल्का करने का इंतज़ाम कीजिये ;)

गुरुवार, फ़रवरी 10, 2005

आ जा सांवरिया तोहें गरवां लगा लूं

कुछ सालों पहले देसी वीडीयो के दुकान में और कोई फ़िल्म न होने की वजह से मजबूरी में गमन फ़िल्म का वीडियोकैसेट ले आया था. मुज़फ़्फ़र अली की इस बेहतरीन फ़िल्म की शुरूआत ही इस haunting ठुमरी के साथ होती है. गाने के साथ ही बैकग्राउन्ड में उनके पैतृक गांव के दृश्य दिखाये गये हैं. इस ठुमरी में और इस सीन में इतनी कसक थी कि न जाने कितनी बार रिवाइन्ड करके मैंने ये सीन और गाना देखा.३-४ मिनिट के इस सीन और इस गाने में इतनी कसक और नोस्तालजिया है कि आपके सामने सीधे अपने गांव या वतन की तस्वीर आ जायेगी और बार बार ये ठुमरी सुनने की और ये सीन देखने की आपकी इच्छा होगी.

इस जबर्दस्त ठुमरी को संगीतबद्ध किया है पंडित जयदेव ने और गाया है हीरा देवी मिश्रा ने. हीरादेवी मिश्रा ने इस ठुमरी को इतना बढ़िया गाया है कि इसे बार बार सुनने की इच्छा होती है. वैसे अच्छे गाने और ठुमरियां काफ़ी सुनी हैं लेकिन कसम से इतनी जबर्दस्त ठुमरी पहले कभी नहीं सुनी है.

गमन की वीडियो कैसेट तो मिल रही है लेकिन इस गाने का आडियो नहीं मिल रहा है.. मैंने नेट पर भी ढ़ूंढ़ा और सारेगामा से भी पूछा लेकिन ये आडियो नहीं मिला. HMV ने गमन का कैसेट निकाला है लेकिन उसमें भी ये गाना उपलब्ध नही हैं. अफ़सोस सद अफ़सोस कि इतना बेहतरीन गाना कहीं पर मिल ही नहीं रहा है.

कुछ साल पहले रिलीज हुई फ़िल्म 'मानसून वैडिंग' में इसी ठुमरी का रिमिक्स फैब्रिक नाम से पेश किया गया है. हलांकि एक तरफ रिमिक्स बनाकर इस अच्छी खासी ठुमरी का ठुमरा बना दिया गया है लेकिन दूसरी तरफ़ ओरिजनल नहीं तो कम से कम रिमिक्स तो सुनने को मिल रहा है..

मुझे लगता है इस ठुमरी के बोल काफ़ी पुराने हैं क्योंकि कुछ दिनों पहले मुझे भीमसेन जोशी द्वारा बहुत पहले गाई गई इसी ठुमरी का mp3 मिला है.. लेकिन गमन वाले version की बात ही कुछ और है.

अगर किसी को गाने के बारे में या गायिका के बारे में और जानकारी हो तो जरूर बताएं.

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